ग्यारह मोदी-वर्षों का हासिल

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सवाल उठना लाजिमी है, क्या पूर्व प्रधानमंत्रियों ने खास काम नहीं किए? यकीनन अतीत में कई कालजयी काम हुए, पर इतनी बड़ी संख्या में लोग लगातार सत्तानायक के कायल नहीं रहे। तमाम सर्वेक्षण गवाह हैं


कि नरेंद्र मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं… ‘चैन की जिंदगी जियो, रोटी खाओ, वरना मेरी गोली तो है ही।’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ये शब्द देश के सीमावर्ती जिले भुज से निकले और लाइव प्रसारण के


जरिये देश-दुनिया में समा गए। उनके विरोधी भले इसे सिनेमाई संवाद कहें, पर ऐसे संदेश भारतीयों के बड़े वर्ग को गर्व का एहसास कराते हैं। क्या यह निरा संयोग है कि उसी दिन नरेंद्र मोदी ने नई दिल्ली


के सत्ता-सदन में बतौर प्रधानमंत्री 11 वर्ष पूरे किए थे? वह अपने तीसरे कार्यकाल का पहला साल भी अगले हफ्ते पूरा करने जा रहे हैं। पिछले बरस 9 जून को जब उन्होंने सत्ता संभाली थी, तब उनके विरोधी


कैसे आह्लादित थे? उन्हें लगता था, बहुमत विहीन भाजपा की बैसाखियों को खींच लेने का सुअवसर उन्हें हासिल हो सकता है। एक बरस बाद यह विचार कितना थोथा लगता है? वक्फ बिल को याद करें। जद (यू) और


तेलुगुदेशम के अनमनेपन के बावजूद न सरकार ने अपने कदम पीछे खींचे, न लहजे में कोई बदलाव किया। दिल्ली के सत्तानायक पहले ऐसा करने से बचते थे। लगता था कि सत्ता का साझापन उनकी रफ्तार रोक रहा है।


क्या मौजूदा प्रधानमंत्री के बारे में ऐसा कहा जा सकता है? यकीनन नहीं। आप 2001 से 2025 तक उनके सत्ता-वर्षों को परखकर देख लीजिए। वह शुरू से उस भाषा का इस्तेमाल करते आए हैं, जिसे उनके मतदाता


उनकी सुदृढ़ता और साफगोई मानते हैं। परंपरावादी भले इसका बुरा मानें, पर लोकतंत्र में वोटर ही स्वीकार या अस्वीकार करते हैं। वह आज तक कोई चुनाव नहीं हारे, इससे बड़ी स्वीकारोक्ति और क्या हो सकती


है? यहां यह मानने की भूल मत कर बैठिएगा कि मोदी सिर्फ आत्म-प्रदर्शन के भरोसे कायम हैं। बतौर प्रधानमंत्री उनके कई काम अनूठे हैं। विश्व की सबसे बड़ी खाद्यान्न वितरण योजना, रेल व सड़क नेटवर्क के


अभूतपूर्व विस्तार, सैनिक साजो-सामान के स्वदेशीकरण, गति शक्ति और आयुष्मान जैसी तमाम योजनाओं के जरिये देश के नागरिकों को उन्होंने न केवल सहारा दिया, बल्कि विश्वास भी दिलाया कि आपके भले के लिए


हम दिन-रात प्रयासरत हैं। यही नहीं, उन्होंने महिलाओं और वंचित वर्गों का खास ख्याल रखा। सैन्य कार्रवाई के नामकरण ‘ऑपरेशन सिंदूर’ ने भी महिलाओं के मन को छुआ। यह पहला मौका है, जब हमारे पास घोषित


‘सुरक्षा नीति’ है और अंदरूनी मोरचे पर माओवाद दम तोड़ रहा है। सैन्य अभियान से याद आया। नरेंद्र मोदी पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने चीन से जुड़े संवेदनशील स्थानों तक सड़क और ट्रेन परिवहन


का जाल बिछाने में गजब की तेजी दिखाई। पिछले हफ्ते की एक सुर्खी पर आपका ध्यान दिलाना चाहूंगा। मिजोरम की राजधानी आईजोल अब रेल मार्ग से जुड़ गई है। अब तक पूर्वोत्तर के सात में से चार राज्यों के


मुख्यालय तक भारतीय रेल के कदम पहुंच चुके हैं। उधर, उत्तराखंड में बद्रीनाथ तक रेल पथ बिछाने का काम तेजी से चल रहा है। इनमें से कुछ योजनाएं पिछली सरकार के समय की हैं, पर इन्हें सिरे तक


पहुंचाने की तत्परता इस सरकार ने दिखाई। समेकित विकास और सुरक्षा का यह समन्वय अभूतपूर्व है। हुकूमत का ढीलापन कैसे दूर हो? इस पर मोदी की अपनी ‘थ्योरी’ है। पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के


कार्यकर्ता और बाद में भारतीय जनता पार्टी के पदाधिकारी के तौर पर काम करते वक्त उन्हें महसूस होता था कि संगठन, सत्ता और नौकरशाही में समूचा तालमेल नहीं है। इसी दौरान 26 जनवरी, 2001 को गुजरात


में विनाशकारी भूकंप आया। हर ओर हाहाकार मच गया। हालात हाथ से जाते देख अटल और आडवाणी की जोड़ी ने गुजरात में लंबे समय तक संगठन का काम देख चुके मोदी को मुख्यमंत्री की गद्दी सौंपी थी। मंत्री तो


दूर, तब तक मोदी कभी विधायक भी नहीं रहे थे, पर उनकी प्राथमिकताएं तय थीं। पहले दिन से ही उन्होंने अपना समूचा ध्यान भूकंप से तबाह इलाके के पुनरोद्धार पर लगा दिया। संसाधनों को एकजुट किया,


राज्यकर्मियों की बिखरी हुई ऊर्जा के तार जोड़े और पीड़ितों को साथ लिया। आज अगर आप भुज मुख्यालय से 136 किलोमीटर दूर धौला वीरा जाएं, तो समतल सफेद रेगिस्तान से उभरती पक्की सड़कें, पेयजल की


टंकियां, स्कूल और बिजली के खंभे दिख जाएंगे। आज कच्छ के रेगिस्तान में तैनात सैनिकों को भी नल से जल उपलब्ध है। उनसे पहले यह अकल्पनीय था। उन्होंने इसी सत्ता-नीति का बीजारोपण देश के सत्ता केंद्र


नॉर्थ और साउथ ब्लॉक में किया। इससे पहले सूबाई राजधानियों से आए भदेस नेता लुटियंस दिल्ली पहुंचते ही अपने चाल, चरित्र और चेहरे को अंग्रेज हुक्मरानों से विरासत में मिले अभिजात्य के अनुरूप


ढालने की कोशिश करते थे। इसके बरखिलाफ मोदी सियासत व सत्ता में भारतीयता के प्रतीक थे और वही बने हुए हैं। आप कह सकते हैं कि यूं तो अटल बिहारी वाजपेयी और देवेगौड़ा भी देशजता का ख्याल रखते थे,


परंतु वे वांछित ऊर्जा का प्रदर्शन नहीं कर पाते थे। मोदी की यह अदा भारतीयों का मन छूती है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी अलग छवि गढ़ती है। यहां सवाल उठना लाजिमी है, क्या पूर्व प्रधानमंत्रियों


ने कोई खास काम नहीं किए? यकीनन अतीत में कई कालजयी काम हुए, पर इतनी बड़ी संख्या में लोग लगातार सत्तानायक के कायल नहीं रहे। तमाम सर्वेक्षण गवाह हैं कि वह पहले प्रधानमंत्री हैं, जो पिछले 11


वर्षों से शीर्ष पर हैं। क्यों? मोदी जानते हैं कि देश के आत्मविश्वास को बनाए रखने के लिए जरूरी है, आम जन तक सरकार का रिपोर्ट कार्ड पहुंचाया जाता रहे। ‘मन की बात’ एक ऐसा प्रयोग है, जिसने उनके


संदेश की निरंतरता को कायम रखा। यही वह मुकाम है, जहां उनका काम और सियासी मकसद एकाकार हो जाते हैं। राजनीति की बात चली है, तो बता दूं, प्रधानमंत्री को भारतीय समाज की विविधता की अद्भुत जानकारी


है। वह विभिन्न वर्गों के ‘वोट बैंक’ की शक्ति पहचानते हैं। इसका इस्तेमाल चुनाव से पहले कब और कैसे करना है, उनसे बेहतर कम ही लोग समझते हैं। इसमें कोई दोराय नहीं कि भारतीय जनता पार्टी में संगठन


का खासा महत्व है, लेकिन हमें ध्यान रखना होगा कि 2014 के बाद ही भारतीय जनता पार्टी को संसार के सबसे बड़े सियासी दल होने का गौरव हासिल हुआ। इसके बावजूद कई वायदे और काम हैं, जिन पर अंगुलियां


उठती हैं। उन पर बहुसंख्यकवाद सहित तमाम तोहमतें थोपी जाती हैं, लेकिन लोकतंत्र में विवाद और विकास साथ चलते रहें, तो हर्ज क्या है? चलते-चलते एक और तथ्य का ध्यान दिलाना चाहूंगा। उनके 12वें


सत्ता-वर्ष के पहले दिन खबर छपी थी, जापान को पछाड़कर भारत दुनिया की चौथी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बन गया है और अगला नंबर जर्मनी का है। हालांकि, कुछ लोग मानते हैं कि साल के अंत तक हम जापान से आगे


निकल पाएंगे, लेकिन इससे कुछ फर्क पड़ता है क्या? आरबीआई की ताजा रिपोर्ट कहती है कि हम दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बने रहेंगे। यह पट्टी बंधी आंखों तक से दीख जाने वाला सच है कि


तमाम चुनौतियों के बावजूद भारत की विकास यात्रा जारी है और हम तेजी से विकासशील राष्ट्रों की कतार से निकलकर विकसितों की जमात का हिस्सा बनते जा रहे हैं। इसमें नरेंद्र मोदी के योगदान से कैसे


इनकार किया जा सकता है? @shekharkahin @shashishekhar.journalist


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