मोहर्रम 2020 : पहली बार नहीं निकलेंगे मातमी जुलूस, जानें क्या है ताजियेदारी
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यूपी के मेरठ शहर के साथ ही रसूलपुर धौलड़ी, खिर्वा जलालपुर, अब्दुल्लापुर में ताजियेदारी और अजादारी अंग्रेजी शासनकाल से चली आ रही है। दुनियाभर में मशहूर मेरठ की अजादारी और ताजियेदारी इस बार
कोरोना... Pankaj Vijay सलीम अहमद, मेरठSat, 29 Aug 2020 10:20 AM Share Follow Us on __ यूपी के मेरठ शहर के साथ ही रसूलपुर धौलड़ी, खिर्वा जलालपुर, अब्दुल्लापुर में ताजियेदारी और अजादारी
अंग्रेजी शासनकाल से चली आ रही है। दुनियाभर में मशहूर मेरठ की अजादारी और ताजियेदारी इस बार कोरोना वायरस संक्रमण का प्रभाव है। कोरोना महामारी के मद्देनजर प्रदेश सरकार ने मोहर्रम के तमाम
आयोजनों पर प्रतिबंध लगाया हुआ है। यौम ए आशूरा (दस मोहर्रम) के दिन भी जुलूस नहीं निकलेगा। ताजिए दफन नहीं कर सकेंगे। शहर की ताजियेदारी और अजादारी की देश-विदेशों में भी चर्चा होती है। यहां के
नौहेख्वानों के नौहे भी पसंद किए जाते है। शहर की मंसबिया घंटाघर पर भी मुल्क के उलेमा आते रहे और मजलिसों को खिताब करते थे। दस मोहर्रम पर छोटी कर्बला चौड़ा कुआं से ताजिये का जुलूस निकलता है और
शहर के अन्य जुलूस भी इसी में शामिल होते है। रेलवे रोड मंसबिया स्थित कर्बला में ताजिये दफन किए जाते है। रसूलपुर धौलड़ी में इमामबारगाहें है। वहां मजलिसों के खिताब करने के लिए मुल्क के तमाम
नामचीन उलेमा आते रहे है। रसूलपुर धौलड़ी के शिया मुस्लिम देश ही नहीं विदेशों में विभिन्न नौकरियों से लेकर देश की राजीनीति और कारोबार में भी अहम स्थान रखते है। जो मोहर्रम के दौरान वापस गांव
लौट आते है। खिर्वा जलालपुर भी अजादारी में पीछे नहीं है। रसूलपुर धौलड़ी में फूलों पर जुलजनाह निकलता रहा। अब्दुल्लापुर में हजरत अब्बास का ताबूत दस मोहर्रम की रात में निकलता है। इसमें हुसैनी
सोगवारों के सिर ही सिर नजर आते है। अली हैदर रिजवी और दिलबर जैदी बताते है कि मेरठ जिले में मोहर्रम के दौरान अजादारी और ताजियेदारी अंग्रेजों के शासन से चली आ रही है। हालांकि देश में उससे भी
पहले से अजादारी और ताजियेदारी का सिलसिला चला आ रहा है। इंसानियत को बचाने को हुई थी जंग शिया मुस्लिम कहते है कि धर्म युद्ध किसी एक धर्म के लिए नहीं सृष्टि की मानवता के लिए होता है। मोहर्रम
माह में कर्बला की ऐतिहासिक जंग इस्लाम को बचाने के लिए ही नहीं मानव कल्याण के लिए लड़ी गयी थी। इंसानियत को बचाने वाले कर्बला के वाकिये को याद करना इस्लामी नहीं इंसानी फितरत है। मोहर्रम की
अजादारी के सांस्कृतिक रंग, अदब, शिल्प, सुर, लय, अनुशासन, तहज़ीब, सौहार्द, अनेकता में एकता, समरसता ये सब इस्लामी नहीं बल्कि इंसानी जज़्बों के रंगों के रंग हैं। ताजियेदारी बताया कि इराक में इमाम
हुसैन का रोजा-ए-मुबारक ( दरगाह ) है, जिसकी हुबहू कॉपी (शक्ल) बनाई जाती है, जिसे ताजिया कहा जाता है. ताजियादारी की शुरुआत भारत से हुई है. तत्कालीन बादशाह तैमूर लंग ने मुहर्रम के महीने में
इमाम हुसैन के रोजे (दरगाह) की तरह से बनवाया और उसे ताजिया का नाम दिया गया दस मोहर्रम को इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों की शाहदत की याद में ताजियेदारी की जाती है। शिया उलेमा के मुताबिक,
मोहर्रम का चांद निकलने की पहली तारीख को ही ताजिया रखने का सिलसिला शुरू हो जाता है और फिर उन्हें दस मोहर्रम को कर्बला में दफन कर दिया जाता है। लेकिन इस बार कोरोना का साया है। ताजियों का जुलूस
नहीं निकलेगा।
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