कहानी – चक्रव्यूह

Jansatta

कहानी – चक्रव्यूह"


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सुमन बाजपेयी रात का सन्नाटा उसके भीतर चल रहे हाहाकार को और उग्र बना रहा था। बेचैनी की तपिश मानो उसे झुलसाने को तैयार थी। वातानुकूलित कमरे में भी उसके माथे पर पसीने की बूंदें झिलमिला रही थीं।


बिस्तर से उठ कर वह खिड़की के पास आकर खड़ा हो गया। मन में चल रहा विचारों का तूफान उसे विचलित कर रहा था। एक तरफ मन नव्या के अंदर आए बदलाव को स्वीकार करने को तैयार नहीं था, लेकिन दूसरी ओर पिछले


कुछ महीनों से जो घट रहा था, उसे भी झुठलाना उसके लिए मुश्किल हो रहा था। ‘नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, नव्या ऐसी नहीं है, वह वैसी हो नहीं सकती।’ जो कुछ घट रहा था, उसके बारे में सोच कर सिहर उठा


नितिन। वे घटनाएं तो जैसे उसे बार-बार सच का आईना दिखा रही हैं। बार-बार उससे कह रही हैं कि वह यकीन कर ले कि नव्या कुछ और ही हो गई है। हालांकि फर्क वह भी इन दिनों लगातार महसूस कर रहा था, पर


उसके दिलो-दिमाग विश्वास करने को तैयार नहीं थे। नव्या को वह इतना चाहता है कि उसको लेकर कोई गलत बात अगर मन में आती भी है तो वह स्वयं को ही बुरा मानने लगता है। उसने टाइम देखा। दो बज गए थे, पर


नींद थी उससे कोसों दूर थी। बिस्तर पर लेटी नव्या गहरी नींद में थी। चेहरे पर बिखरी लटें उसकी सुंदरता को और बढ़ा रही थीं। पारदर्शी गुलाबी नाइटी में लिपटा उसका शरीर किसी तराशी हुई संगमरमर की


मूर्ति से कम नहीं लग रहा था। उसके सुडौल जिस्म की कमनीयता और अंगों की लावण्यता नितिन को उसे बांहों में भरने के लिए उकसाने लगी। उसका सान्निध्य कितना सुख देता है और नव्या भी तो हमेशा उसकी


बांहों में आने, उससे लिपटने को आतुर रहती थी। फिर आखिर नव्या कैसे बदल सकती है… उसने अपनी सोच को विराम देने के लिए हल्के से नव्या के गालों को चूम लिया। वह थोड़ी-सी हिली, पर फिर सो गई। उसके


चेहरे पर एक सुकून था, एक तृप्ति थी। उनके आपसी संबंधों में हमेशा ही प्रगाढ़ता रही है- विवाह के बाद से ही दोनों के बीच दैहिक संबंधों को लेकर कभी मतभेद नहीं हुआ। नव्या ने कभी उसके आग्रह को


ठुकराया नहीं था, बल्कि स्वयं पहल कर वह उसे अपने प्यार से सराबोर कर देती थी। सुखद एहसास से भरे वे दोनों एक-दूसरे की बांहों में सो जाते। वे तृप्ति और संतुष्टि की भावनाएं ही तो थीं, जिसके कारण


विवाह के सात वर्षों के बाद भी उनके बीच नजदीकी और साथ पाने की ललक थी। मगर कुछ महीनों से नव्या की गरम सांसों में वह उत्तेजना नहीं रही थी, जो उसे कभी तुरंत पिघला दिया करती थी। लेकिन इसे काम का


तनाव मान कर नितिन ने नजरअंदाज कर दिया था। विज्ञापन की दुनिया आसान होती भी नहीं है। जबसे नव्या की तरक्की हुई थी, बहुत सारी जिम्मेवारियां उस पर आ गई थीं। वह भी कहां फुरसत में रह पाता था। उसकी


व्यस्तता को लेकर पहले तो नव्या शिकायत किया करती थी, पर अब वह खुद इतनी व्यस्त हो गई थी कि साथ समय बिताने का वक्त ही नहीं मिल पाता था। उनके बीच शुरू से ही इतनी अच्छी आपसी समझ रही थी कि तनाव की


नौबत आई ही नहीं थी। आजकल जब भी वह उसके करीब आना चाहता है, तो वह थकी हुई है कह कर मुंह फेर कर सो जाती है। पहले तो उसे कभी संदेह नहीं हुआ कि वह ऐसा जानबूझ कर कहती है, लेकिन अब उसके अंदर शक के


कीड़े कुलबुलाने लगे हैं। नव्या की दैहिक भूख तो हमेशा तीव्र रही है, फिर उसके अंदर इतना ठंडापन कैसे आ गया? कहीं वास्तव में नव्या बदलने तो नहीं लगी है? नितिन यह सोच कर खुद को ही धिक्कारने लगा।


नव्या को उसने फिर चूमा तो वह कसमसाई। नितिन पूरी तरह से उस पर हावी हो गया और नींद में ही नव्या ने उसे बांहों में जकड़ लिया। कोई विरोध नहीं, कोई ठंडापन नहीं, ऐसा क्यों लग रहा था कि नव्या खुद


ऐसा चाहती थी- उसकी बांहों की जकड़ से उसे महसूस हुआ कि उसका मन भी प्यार करने को आतुर था। फिर इतने दिनों से वह क्यों जता रही थी कि उसे अच्छा नहीं लगता। बिना मर्जी के उसके साथ संबंध बनाना नितिन


को पसंद नहीं था। इस समय वह ओस में नहाए हुए कोमल गुलाब की पंखुड़ी के समान लग रही थी। भावनाओं के गहरे सागर में डूबती-उतराती। नाहक ही नितिन उसके बारे में इतना कुछ सोच गया था। आवेग के कम होते ही


जैसे नितिन सोने लगा, तब तक नव्या जाग चुकी थी। वह एकदम चिल्लाई, ‘यह क्या बदतमीजी है। मेरी नींद खराब कर दी। कल से मैं दूसरे कमरे में सोऊंगी।’  ‘पर नव्या तुम्हारी मर्जी देख कर ही मैंने…’ ‘हुंह,


मेरी मर्जी, सोते समय कहां ध्यान रहता है कि कौन है, किसकी बांहों में…’ अचानक बोलते-बोलते वह चुप हो गई, जैसे बहते प्रवाह पर किसी ने रोक लगा दी हो। फिर तकिया उठा कर वह दूसरे कमरे में चली गई।


अकेले कमरे में सिगरेट के धुंए से छल्ले बनाता हुआ बहुत देर तक खुद को मथता रहा नितिन। नव्या की उस बात का आखिर क्या मतलब हो सकता है, यानी उसने उसे ‘कोई’ समझ कर प्यार किया था। किसके आगोश में


होने की कल्पना में वह खोई हुई थी- शायद इसीलिए अरसे बाद उसे आज तृप्ति का अनुभव हुआ था। पिछले दिनों की घटनाएं और आज का नव्या का व्यवहार सब गड्डमड्ड-सा होता महसूस हुआ उसे। उसे लगा कि वह जैसे


किसी चक्रव्यूह में उलझता जा रहा है। कभी निकलने की उम्मीद बनती है तो कभी वह और गोल-गोल घूमने लगता है। नव्या के किस रूप को वह सच माने। कहीं कोई और पुरुष तो उसके जीवन में नहीं आ गया है। नितिन


की नींद कब की उड़ चुकी थी। पर नव्या उसके साथ आखिर छल क्यों करेगी? उनके बीच न तो कभी किसी बात को लेकर मतभेद होता है, न ही उनके रिश्ते में सड़ांध आई है। वह तो उसकी जिंदगी में दखल तक नहीं देता।


उसे तो यह भी याद नहीं कि कभी इतने सालों में किसी बात को लेकर उनके बीच तकरार हुई हो। विवाह के बाद नव्या ने कहा कि वह बच्चा नहीं चाहती, तो उसने मान लिया। कैरियर को लेकर वह बहुत महत्त्वाकांक्षी


थी। हालांकि पिछले दो-तीन वर्षों से उसके अंदर संतान सुख की चाह हिलोरें लेने लगी थी, पर शायद कुदरत को यह मंजूर नहीं था, इसलिए तमाम कोशिशों के बावजूद कोंपल नहीं फूटी। इस बात से नव्या को उसने


कभी दुखी होते नहीं देखा। वैसे भी नव्या की आदत थी कि वह किसी भी बात को लेकर बहुत गंभीर नहीं होती थी। बहुत सी चीजों को वक्त के हाथों छोड़ देना चाहिए, ऐसा ही वह मानती थी। खुला दृष्टिकोण, हमेशा


हंसते रहना और उत्साह से भरे रहना- नितिन उसकी इन्हीं खासियतों पर फिदा भी था और उसकी इज्जत भी करता था। रात न जाने क्यों आज उसे बहुत लंबी लग रही थी। सोच के दायरे बड़े होते जा रहे थे। उसने एक और


सिगरेट सुलगा ली। कमरे में फैला अकेलापन उसे परेशान कर रहा था। नव्या का ऐसा व्यवहार उसके लिए बिलकुल अप्रत्याशित था। नव्या में आया यह बदलाव अकारण तो नहीं हो सकता है। नितिन की आंखों के सामने वह


दृश्य घूम गया, जब नव्या अपनी सहेली सुषमा के साथ लिपटी हुई थी। वे दोनों एक-दूसरे को बेतहाशा चूम रही थीं, एक-दूसरे के अंगों को टटोल रही थीं। एक उत्तेजना व्याप्त थी उन दोनों के बीच। उसके बाद


अपने कमरे में नितिन ने नव्या को बहुत कम कपड़ों में सुषमा पर हावी होते देखा था। बहुत ही घिनौना लगा था वह सब। उसे एक बात समझ नहीं आई थी कि उन दोनों ने कमरे का दरवाजा खुला क्यों छोड़ा हुआ था। इन


दिनों नव्या सुषमा से धीमे स्वर में फोन पर बात करती नजर आती। कई बार वह सुषमा के घर पर भी रात गुजारने लगी थी। दोस्त और सहकर्मी होने की वजह से साथ वक्त बिताना कोई अचरज की बात तो नहीं थी, पर इस


तरह..। सुषमा खुद विवाहित थी और अपने पति रजत के साथ उसके संबंध मधुर थे। एक बेटा भी था। ऐसी सूरत में दोनों का इस तरह…। नितिन को लगा कि वह बुरी तरह से उलझता जा रहा है। सिर में भारीपन महसूस हुआ


तो वह लैंप बंद कर आंखें मूंद कर लेट गया। जब आंख खुली तो दस बज चुके थे। नव्या जा चुकी थी। उसने रजत से इस बारे में बात करना उचित समझा, पर रजत तो सब कुछ जान कर हैरान हो गया। उसे पल-दो पल का


आवेग मान कर नितिन को इस बारे में चुप ही रहने को कहा। ‘वैसे भी, यह जो प्रगतिवादी और स्वच्छंद नारी है न, वह तरह-तरह के प्रयोग करना चाहती है। हो सकता है इस तरह की समलैंगिकता भी एक तरह का प्रयोग


हो। हर तरह का स्वाद चखना और फिर ये आजकल की फिल्में- इस तरह के विषयों को कुछ ज्यादा ही उछालने लगी हैं। ऐसा कुछ होता तो सुषमा में भी परिवर्तन मुझे दिखता ही। जस्ट फारगेट इट, यह आधुनिक समाज में


फिट होने का कोई शिगूफा हो सकता है। इस तरह के संबंधों की सच्चाई क्या है, इस बारे में जान लेंगी तो खुद हमारे महत्त्व को समझ जाएंगी। नथिंग टू वरी।’ रजत का यों सहज रहना बेशक नितिन को अच्छा नहीं


लगा, पर उसे अपने ऊपर ग्लानि अवश्य हुई। ‘नव्या, रात को एक गेट टुगेदर रखा है। विदेश से एक मेहमान है। हालांकि है तो वह भारतीय, लेकिन कुछ सालों से विदेश का ही होकर रह गया था। अब वापस यहीं लौटना


चाहता है। कुछ पारंपरिक भारतीय भोजन का इंतजाम कर लेना।’ नितिन की बात सुन कर नव्या के अंदर अनगिनत कलियां चटक उठीं। होंठों पर गुनगुनाहट थिरकने लगी। आने वाले मेहमान के बारे में सोच कर ही उसके


गाल आरक्त हो उठे थे। नितिन को क्या पता कि वह और दिवाकर बरसों से एक-दूसरे को जानते हैं। कॉलेज में उनका प्यार परवान चढ़ा था। उसके विदेश जाने से जिंदगी में उथल-पुथल मच गई थी। नितिन को पता नहीं


था कि वह चार महीने पहले भी भारत आया था और उस दौरान उनके प्यार के रंग फिर से खिल उठे थे। नव्या को उसके साथ सब कुछ अच्छा लगता था। कोई औपचारिकता नहीं। बात अच्छी नहीं लगी तो झिड़की, अच्छी लगी तो


चुंबन। रास्ते चलते गोलगप्पे खाने में कोई झिझक नहीं, वरना नितिन तो इन सब बातों को फूहड़पन की निशानी मानता है। उसकी मानें तो सब कुछ श्ष्टिाचार-तहजीब के साथ, व्यवस्था और परफेक्शन के अनुसार होना


चाहिए। अबकी बार दिवाकर भारत में बसने के लिए लौट आया था। उसका साथ पाने को वह बेताब थी, पर उसकी लापरवाही से देर हो रही थी। दिवाकर के लौटने तक उसे तैयार रहना चाहिए था, पर अभी तक वह कुछ कर नहीं


पाई थी। पार्टी में दोनों इस तरह मिले कि मानो एक-दूसरे को जानते तक नहीं हैं। सुषमा बार-बार उनके इस व्यवहार पर मुस्करा उठती थी। सुषमा की यह भेदभरी हंसी नितिन के मन में संदेह उत्पन्न कर रही थी।


वह सहज बने रहने की लगातार कोशिश कर रहा था। रजत उसकी मनोस्थिति को समझ कर उसके पास ही मंडरा रहा था। नितिन चाहे लाख सहज बने रहने की कोशिश करे, पर अब तो सुषमा और नव्या खुल्लमखुल्ला अमर्यादित


आचरण करने लगी थीं। नितिन के लिए सब कुछ असहनीय हो उठा था। नव्या इस हद तक गिर सकती है- वह भी वैवाहिक जीवन के सुखद पलों का आनंद उठाने के बाद। उसे खुद से घृणा होने लगी थी। अपने पुरुषत्व की हार


होती महसूस हुई उसे। कहां कमी रह गई थी उसके प्यार में, जो दूसरी औरत का साथ नव्या को अच्छा लगने लगा था। हमेशा की तरह इस बार भी कुछ कहने-सुनने की उसे इच्छा नहीं हुई। आज तक तो उसने नव्या की किसी


बात का विरोध नहीं किया था, फिर आज जब बात इतनी आगे बढ़ चुकी है, कुछ कहने का फायदा ही नहीं था। पर उसे रजत पर हैरानी होती थी। आखिर वह सुषमा के व्यवहार से क्षुब्ध क्यों नहीं होता? हो सकता है


नव्या ने सुषमा को उकसाया हो। दोनों सखियां आज तक हर बात साझा करती आई हैं। हो सकता है इस तरह और आत्मीयता बढ़ाना चाहती हों। फिर रजत तो इसे फैशन मानता था। कुछ भी हो, नितिन के लिए यह सब झेल पाना


नामुमकिन हो गया था। नव्या से सीधे सवाल कर वह अपनी ही नजरों में गिरना नहीं चाहता था। तलाक के कागज उसके आगे रख कर बिना कुछ कहे उसने नव्या के सामने कलम बढ़ा दी थी। उसकी प्रतिक्रिया जानने के लिए


वह एकटक उसे ही देख रहा था। नहीं, कोई प्रतिकार नहीं, कोई सवाल नहीं। मुस्कराते हुए उसने दस्तखत कर दिए। ‘थैंक यू नितिन। मैं तो कबसे इन कागजों का इंतजार कर रही थी। देर लगी, पर तुम्हारे ऊबाऊ साथ


से छुटकारा तो मिला। मैं तंग आ गई थी इस नीरस जिंदगी से। कुछ भी नहीं था हमारे बीच- सिवाय अंडरस्टैंडिंग के। कोई कुछ नहीं बोलेगा, बस समझेगा। थोड़ी-बहुत तकरार जिंदगी में रस भरती है। तुम्हारे महान


बनने का शौक मुझे पागल कर रहा था। शुक्र है दिवाकर लौट आया। मैं जा रही हूं उसके पास।’ नितिन को लगा कि इस व्यूह को समझना उतना ही मुश्किल है जितना कि उसे तोड़ पाना। नव्या के अंदर इतना लावा, इतना


आक्रोश जमा हुआ था, इसका तो उसे अंदाजा तक नहीं था। दिवाकर… सुषमा… वह एक बार फिर उलझने लगा। ‘पर सुषमा के साथ तुम्हारे संबंध?’‘सिर्फ धोखा, तुम्हें भ्रमित करने के लिए। तुमसे छुटकारा पाने का और


कोई तरीका नहीं था मेरे पास। तुम्हारी शिकायत करती, ऐसा मौका कहां दिया तुमने कभी। तुम ठहरे परफेक्शनिस्ट, इसलिए तुम ही मुझे छोड़ दो, ऐसा करने के लिए ही यह खेल खेला गया था। बाय-बाय नितिन।’ नव्या


के चेहरे पर जीत की खुशी थी। जाती हुई नव्या को देखता रहा नितिन। अच्छा बनने की क्या इतनी बड़ी सजा मिलती है? उसे लगा कि चक्रव्यूह में वह लगातार फंसता ही जा रहा है।


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