किताबें मिलीं: क्यों तेरा राह गुजर याद आया और मेरा दावा है

Jansatta

किताबें मिलीं: क्यों तेरा राह गुजर याद आया और मेरा दावा है"


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क्यों तेरा राह गुजर याद आया सूचना-तंत्र, मीडिया, इंटरनेट, मोबाइल और नए अर्थ-तंत्र के उभार के साथ सूचना विस्फोट की जो आंधी चली, उसमें सदियों पुरानी रिवायतें ढेर हो गई हैं। ऐसे में पत्र कैसे


बचता? कभी वक्त था, दिन में दो-दो बार पत्रों के पुलिंदे आते और उनमें हम घंटों खोए रहते। अपनों से मिलने की अनुभूति से सरोबार- आधी मुलाकात जैसे पत्र हमें गहरी संवेदनाओं से समृद्ध कर देते।


विचारों को झकझोर देते, अंतर्मन में खलबली मचा देते और हम खुशी और गम, सुख और अवसाद, उल्लास और त्रास जैसे मनोवेगों में घंटों लिपटे रहते। पत्रों की आवाजाही इतना कुछ कहती रही है जितना किसी अन्य


तरीके से नहीं कहा जा सकता। इसमें संदेह नहीं कि पत्र एक तरह से विरेचन, मुक्ति-विमुक्ति के रास्ते रहे हैं। जितनी तरह के पत्र-लेखक उतनी तरह के पत्र- कभी सहज, सपाट, दो-टूक, कभी खब्ती-चिड़चिड़े,


आक्रामक, कभी फैंटेसी और फार्स की हदों को छूते, कभी व्यंजनाओं और ध्वनियों में दूर तक मार करते और कभी हास्य और व्यंग्य में लैस। लेकिनअब वह बात कहां है? उनोके न आने से दिल-दिमाग के कई कोने खाली


हो गए हैं और सीधी-सच्ची, खरी-खोटी, गहरी-आत्मीय बातचीत से गूंजती जगहें सिकुड़ गई हैं। प्रस्तुत कृति में 1970 से 2019 के काल-खंड के कई अंतरालों, कई रचना-पीढ़ियों, कई प्रादेशिक अस्मिताओं को


समेटे पत्र शामिल हैं। इनसे गुजरते हुए पाठक किस्म-किस्म के लेखकीय अनुभवों और विचारों के तीव्र संक्रमण से रूबरू होंगे। मेरा दावा है इस कविता संकलन में कुल पैंतीस कवियों और कवयित्रियों की


छियासी कविताएं हैं, जो जीवन की रंग-बिरंगी अनुभूतियों और संवेदनाओं का इंद्रधनुष अंकित करती हैं। इन कविताओं में अपना देश तो है ही, जीवन का सुख-दुख है, प्रेम-उपेक्षा एवं वियोग है, अभिमन्यु बनने


की कामना है, संबंधों की पीड़ा है तथा ‘मोक्ष’ के स्थान पर जीवन की आकांक्षा है। प्रत्येक कवि का अपना काव्य-संसार है, लेकिन जब इतने कवि एक साथ एक संकलन में आते हैं, तो हिंदी की प्रवासी कविता का


एक संश्लिष्ट बिंब निर्मित करते हैं। इस विभिन्नता में एकता का आधार यह है कि ये सभी भारतीय कवि-कवयित्रियां हैं और सभी के पास भारतीय मन और चिंतन है। वह अमेरिका की आकर्षक दुनिया में गुम नहीं


होता, वह तो अपने भारतीय-बोध को जीवित रखता है। इनमें से अधिक रचनाकार पेशेवर लेखक नहीं हैं, लेकिन उनके अंदर एक रचनाकार बैठा है जो इसका चिंता नहीं करता कि वे कला-कृति की रचना कर रहे हैं या


नहीं, वे तो निश्छल व निर्द्वंद्व होकर अपनी भावनाओं को शब्दों में साकार रूप दे रहे होते हैं। अत: इन कविताओं का महत्त्व इनकी कला में न होकर निश्छल अभिव्यक्ति में है, जो इन्हें अमेरिका के


तनावग्रस्त जीवन से कुछ क्षणों के लिए मुक्त करती है। इन कवियों का यही दावा है कि ये संवेदनाओं के साथ अमेरिका में रह रहे हैं। सुधा ओम ढींगरा का यह प्रयास सराहनीय है कि वे इन भारतीय प्रवासी


रचनाकारों से भारत के पाठकों से परिचय करा रही हैं और इन रचनाकारों को भी यह सुख होगा कि वे इन कविताओं को रच कर अपनी भाषा के माध्यम से जुड़ रहे हैं।


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