राजनीति: बांध सुरक्षा की पहल

Jansatta

राजनीति: बांध सुरक्षा की पहल"


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देश में बांधों की सुरक्षा के लिए कानून बनाने की पहल शुरू हो चुकी है। संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में बांध सुरक्षा विधेयक-2018 पेश कर दिया गया है। इस विधेयक का उद्देश्य भारत के बांधों की


सुरक्षा के लिए एक मजबूत और संस्थागत कार्ययोजना तैयार करना है। भारत में बांधों की सुरक्षा के लिए कानून की कमी के कारण यह चिंता और विचार का मुद्दा है, खासतौर से बड़े बांधों का निर्माण देश में


बड़ी बहस और विवाद के मुद्दे रहे हैं। फरक्का, नर्मदा सागर और टिहरी बांध के विस्थापितों का आज भी सेवा-शर्तों के अनुसार उचित विस्थापन संभव नहीं हुआ है। बड़े बांधों को बाढ़, भू-जल भराव क्षेत्रों को


हानि और नदियों की अविरलता के लिए भी दोषी माना गया है। बाबजूद इसके देश के महानगरों में पेयजल और ऊर्जा संबंधी जरूरतों की आपूर्ति और सिंचाई जल की उपलब्धता बड़ी मात्रा में इन्हीं बांधों से


मुमकिन हुई है। बांधों की सुरक्षा और सरंक्षण इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि इन्हें हमने पर्यावरण विनाश और विस्थापन जैसी बड़ी चुनौतियों से निपटते हुए खड़ा किया है।


अमेरिका और चीन के बाद सबसे अधिक बड़े बांध भारत में हैं। यहां के हर क्षेत्र में बड़ी संख्या में नदियों और पहाड़ों के होने से बांधों का निर्माण संभव हुआ है। भारत में पांच हजार से भी ज्यादा बड़े


बांध हैं। इसके अलावा साढ़े चार सौ बड़े बांध निर्माणाधीन हैं। छोटे और मझौले बांधों की संख्या तो हजारों में हैं। भारतीय भौगोलिक परिस्थिति और अनुकूल जलवायु का ही कमाल है, जो इतने छोटे-बड़े बांधों


का निर्माण संभव हुआ। भारत में बांधों का निर्माण आजादी के पूर्व से ही आरंभ हो गया था, इसलिए एक सौ चौंसठ बांध तो सौ साल से भी ज्यादा पुराने हैं। पिचहत्तर प्रतिशत बांध पच्चीस साल से भी अधिक


पुराने हैं। लेकिन बांधों का समुचित रख-रखाव नहीं होने के कारण पिछले कुछ दशकों के भीतर छत्तीस बांध टूटे भी हैं। इनके अचानक टूटने से न केवल पर्यावरणीय क्षति हुई, बल्कि हजारों लोग भी मारे गए।


फसल और ग्राम भी ध्वस्त हुए। टूटे बांधों में राजस्थान के ग्यारह, मध्यप्रदेश के दस, गुजरात के पांच, महाराष्ट्र के चार, आंध्र प्रदेश के दो और उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, तमिलनाडु व ओड़िशा के एक-एक


बांध शमिल हैं।


1979 में गुजरात में स्थित मच्छू-2 बांध के टूटने से करीब दो हजार लोगों की मौत हो गई थी। पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में गंगा नदी पर बना फरक्का बांध भी बरसात में बाढ़ की समस्या बन तबाही


मचाता है। इसलिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसे तोड़ने की बात कही थी। इन्हीं खतरों और विवादों को ध्यान में रखते हुए ही ‘बांध सुरक्षा विधेयक-2018’ संसद में पेश किया गया है। यह विधेयक


अस्तित्व में आ जाता है तो वर्तमान में मौजूद सलाहकार निकाय के रूप में उपलब्ध केंद्रीय बांध सुरक्षा संगठन (सीडीएसओ) और राज्य बांध सुरक्षा संगठन (एसडीएसओ) की जगह प्रत्येक राज्य के लिए नियामक


निकाय के रूप में एक राज्य बांध सुरक्षा प्राधिकरण (एसडीएसए) और एक राष्ट्रीय बांध सुरक्षा प्राधिकरण (एनडीएसए) की स्थापना सुनिश्चित करेगा। एनडीएसए दिशा-निर्देश तैयार करेगा, जिनके अनुसार बांधों


की सुरक्षा को बनाए रखना बाध्यकारी होगा। इस विधेयक के प्रारूप में बांधों का निर्माण करने वाली सरकारी और निजी संस्थाओं को लापरवाही बरतने और सुरक्षा मानदंडों का पालन नहीं करने पर दंडित करने के


भी प्रावधान शामिल हैं।


कई राज्य इस कानून के विरोध में भी हैं। दरअसल, प्रत्येक राज्य में स्थित बांधों की सुरक्षा के लिए एसडीएसए स्थापित किया जाएगा। एक राज्य के स्वामित्व वाले बांध, जो किसी अन्य राज्य में या


केंद्रीय लोक सेवा उपक्रमों (सीपीएसयू) के अंतर्गत आने वाले बांध या वे बांध जो दो या दो से अधिक राज्यों में फैले हैं, सभी एनडीएसए के अधिकार क्षेत्र में होंगे। इसी कारण तमिलनाडु जैसे राज्यों की


ओर से विधेयक का विरोध किया जा रहा है, क्योंकि यह राज्य केरल में कई बांधों का प्रबंधन करता है। मुल्ला पेरियार बांध इनमें से एक है। विरोधी राज्यों को डर है कि यह विधेयक उनकी शक्ति कमजोर


करेगा। 2014 में तमिलनाडु और केरल सर्वोच्च न्यायालय भी गए थे। तमिलनाडु अपने यहां बांधों की जल भंडारण क्षमता में वृद्धि करना चाहता था, जबकि केरल ने सुरक्षा का हवाला देते हुए विरोध किया था।


लेकिन यह विधेयक अस्तित्व में आ जाता है तो जो बांध दो या दो से अधिक राज्यों की आर्थिक मदद से निर्माणाधीन होने के कारण विवादग्रस्त हैं, उनके सामाधान का रास्ता खुल जाएगा।


दरअसल अंग्रेजी शासनकाल में जो बांध बने थे, वे आजादी के बाद राज्यों के अस्तित्व में आने के साथ ही विवादित हो गए। ये विवाद आज तक नहीं निपटे हैं। 1892 व 1924 में मैसूर राज्य व मद्रास


प्रेसिडेंसी (वर्तमान तमिलनाडु) के बीच जल बंटवारे को लेकर समझौते हुए थे। आजादी के बाद मैसूर का कर्नाटक में विलय हो गया। इसके बाद से कर्नाटक को लगने लगा कि मद्रास प्रेसिडेंसी पर अंग्रेजों का


प्रभाव अधिक था, इसलिए समझौता मद्रास के पक्ष में हुआ है। लिहाजा वह इस समझौते को नहीं मानता है। जबकि तमिलनाडु का तर्क है कि पूर्व समझौते के मुताबिक उसने ऐसी कृषि योग्य भूमि विकसित कर ली है,


जिसकी खेती कावेरी से मिलने वाले सिंचाई हेतु जल के बिना संभव नहीं है।


इस बावत 1986 में तमिलनाडु ने विवाद के निपटारे के लिए केंद्र सरकार से एक पंचाट बनाने की मांग की। नदी विवाद जल अधिनियम के तहत 1990 में पंचाट बनाया गया। इसने कर्नाटक को आदेश दिया कि तमिलनाडु को


419 अरब क्यूसेक फीट पानी, केरल को 30 अरब और पुद्दुचेरी को दो अरब क्यूसेक पानी दिया जाए। किंतु कर्नाटक ने इस आदेश को मानने से इंकार करते हुए कहा कि कावेरी पर हमारा पूरा हक है, इसलिए हम पानी


नहीं देंगे। लिहाजा बार-बार विवाद गहराता रहता है। इसी तरह तमिलनाडु व केरल के बीच मुल्ला पेरियार बांध की ऊंचाई को लेकर भी विवाद गहराया हुआ है। तमिलनाडु इस बांध की ऊंचाई एक सौ बत्तीस फीट से बढ़ा


कर एक सौ बयालीस फीट करना चाहता है, जबकि केरल इसकी ऊंचाई कम रखना चाहता है। केरल का दावा है कि यह बांध खतरनाक है, इसीलिए इसकी जगह नया बांध बनना चाहिए। जबकि तमिलनाडु ऐसे किसी खतरे की आशंका को


सिरे से खारिज करता है। पेरियार नदी पर बंधा यह बांध 1895 में अंग्रेजों ने मद्रास प्रेसिडेंसी को पट्टे पर दिया था। लेकिन स्वतंत्र भारत में उन कार्यों, फैसलों और समझौतों की राज्यों की नई


भौगोलिक सीमा के गठन व उस राज्य में रहने वाली जनता की सुविधा व जरूरत के हिसाब से पुनर्व्याख्या करने की जरूरत है।


पांच नदियों वाले प्रदेश पंजाब में रावी व ब्यास नदी के जल बंटवारे पर पंजाब और हरियाणा पिछले कई दशकों से अदालती लड़ाई लड़ रहे हैं। इनके बीच दूसरा जल विवाद सतलुज और यमुना लिंक नहर का भी है।


प्रस्तावित योजना के तहत सतलुज और यमुना नदियों को जोड़कर नहर बनाने से पूर्वी व पश्चिमी भारत के बीच अस्तित्व में आने वाले जलमार्ग से परिवहन की उम्मीद बढ़ जाएगी। हरियाणा ने तो अपने हिस्से का


निर्माण कार्य पूरा कर लिया है, लेकिन पंजाब को इसमें कुछ नुकसान नजर आया तो उसने विधानसभा में प्रस्ताव लाकर इस समझौते को ही रद्द कर दिया। लिहाजा अब यह मामला भी अदालत में है। बहरहाल, इसी तरह


अंतरराज्यीय जल विवादों का राजनीतिकरण होता रहा तो मौजूदा बांधों का अस्तित्व बचाना और निर्माणाधीन बांधों को पूरा करना मुश्किल होगा।


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