शोध: बर्फीले क्षेत्रों में सैनिकों के लिए छरमा से बनेगी दवा

Jansatta

शोध: बर्फीले क्षेत्रों में सैनिकों के लिए छरमा से बनेगी दवा"


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हजारों फुट की ऊंचाई और बर्फ के बीच चौबीस घंटे चौकस रहना कोई आसान काम नहीं है। लेकिन हमारे बहादुर सैनिक देश की रक्षा के लिए ऐसी दुर्गम परिस्थितियों में भी डटे रहते हैं। इन्हीं सैनिकों के लिए


हिमाचल प्रदेश के छरमा से दवा बनाई जा रही है। छरमा की दवा से भारतीय सैनिकों को ऊंचाई (हाई एल्टीट्यूड) में होने वाली ऑक्सीजन की कमी, कम तापमान और वातावरण को कम समय में अनुकूल बनाने में मदद


मिलेगी। इसके क्लीनिकल रिसर्च का काम पूरा कर लिया गया है। सीबकथॉर्न, जिसे हिमाचल के स्थानीय भाषा में छरमा कहा जाता है। यह एक जंगली झाड़ी है जो प्रदेश के लाहुल, स्पीति और किन्नौर के कुछ हिस्सों


में स्वाभाविक रूप से बढ़ती है। छरमा में रोगों से लड़ने की क्षमता होती है साथ ही इसमें कई औषधीय गुण भी मौजूद होते हैं। छरमा का प्रयोग 262 तरह की दवाइयों के उत्पादन में किया जाता है। यही नहीं


सर्दी-जुकाम, बुखार और जोड़ों के दर्द के इलाज के लिए भी छरमा का प्रयोग किया जाता है। देश के ऊंचाई वाले सीमावर्ती इलाकों में तैनात सैनिकों को होने वाली समस्याओं से लाहुल का छरमा निजात दिलाएगा।


रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) छरमा (सीबकथॉर्न) की दवा बनाने में जुट गया है। हालांकि यह रिसर्च पिछले करीब डेढ़ दशक से चल रही है, अब जाकर इसमें सफलता की थोड़ी आस दिख रही है। पहले चरण


में दवा के फ्री क्लीनिक रिसर्च का काम पूरा हो गया है। छरमा की दवा से फौजियों को हाई अल्टीट्यूड में होने वाली ऑक्सीजन की कमी, कम तापमान और वातावरण को कम समय में अनुकूल बनाने में मदद करेगी।


हालांकि छरमा से कोरोना विषाणु की भी दवा बनाने का दावा किया है, जिसको लेकर सीबकथॉर्न एसोसिएशन आफ इंडिया आईआईटी रुड़की व मंडी सहित सात संस्थानों के साथ मिलकर बूस्टर दवा बनाने जा रही है और आयुष


मंत्रालय को साढ़े सात करोड़ का प्रोजेक्ट मंजूरी के लिए भेजा है। वर्ष 2000 में हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय पालमपुर और डीआरडीओ में एक एमओयू साइन हुआ था। चार से पांच साल के अध्ययन के बाद


डीआरडीओ ने चरक नाम से एक प्रोजेक्ट तैयार किया और इसे 2007-08 में मंजूरी मिली थी। प्रथम चरण में दवा को फ्री क्लीनिक रिसर्च में परीक्षण किया, जहां इसके बेहतर परिणाम आए। हाइपोक्सिया और स्नो


बाइट्स पर डिफेंस इंस्टीट्यूट आफ फिजियोलॉजी एंड अलाइड साइंसेज (डीआईपीएएस) काम कर रहा है। इंस्टीट्यूट आॅफ न्यूक्लियर मेडिसिन एंड एलाइड साइंसेज (आइएनएमएएस) दिल्ली ने रेडिएशन को लेकर छरमा


कीक्रीम तैयार कर दी है। सीबकथॉर्न एसोसिएशन ऑफ इंडिया के महासचिव डॉ वीरेंद्र सिंह के मुताबिक फ्री क्लीनिक रिसर्च में इसका ट्रायल सफल रहा है। हमारे सेना के जवानों को हिमालय क्षेत्र की लगातार


निगरानी करनी होती है। ये जमीन से काफी मीटर की ऊंचाई पर स्थित होते हैं। ऊंचाई वाले इलाकों में ऑक्सीजन की भारी कमी होती है। इससे फेफड़ों पर अत्यधिक दबाव पड़ता है। इतनी ऊंचाई पर सामान्य इंसान को


भी सांस लेने तक दिक्कत होती है। वहीं किसी व्यक्ति को वातावरण अनुकूल करने में दस से 12 दिन लगते हैं। जबकि भारतीय जवान 12 से 18 हजार फीट की ऊंचाई में तैनात रहते हैं। ऐसे में यहां ऑक्सीजन, स्नो


बाइट्स तथा रेडिएशन की समस्या रहती है। डॉ वीरेंद्र सिंह ने कहा कि ऑक्सीजन की कमी से सबसे अधिक नुकसान फेफड़ों को होता है, जिससे व्यक्ति की मौत भी हो जाती है। जरा सा तापमान कम होता है तो हम सब


अपने घरों में दुबक जाते हैं वहीं -70 डिग्री तापमान में भी हमारे जवान सीमाओं पर डटे रहते हैं। जवानों को चौकस होकर दिन रात अपनी ड्यूटी करनी होती है। यही नहीं इन जगहों पर 160 किमी/घंटे की


रफ्तार से ठंडी हवाएं भी चलती हैं। बफीर्ली जगह में ये हवाएं बर्फबारी से भी अधिक खतरनाक होती हैं कारण कि अत्यधिक ठंड से आंतों के जम जाने से मौत भी हो सकती है। वहीं ठंड के समय भारत और पाकिस्तान


दोनों ओर के करीब 10000 से 20000 तक सैनिक जम्मू-कश्मीर में तैनात रहते हैं।


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