दीक्षा लेना ही नहीं, उसका पालन भी जरूरी
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विनय बिहारी सिंहभिन्न धर्मों में दीक्षा लेने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। फिर भी अनेक लोग नहीं जानते कि आखिर दीक्षा में होता क्या है? दीक्षा है क्या? साधारण भाषा में कहें तो किसी गुरु
की देख-रेख में एक साधना पद्धति को अपनाने का संकल्प दीक्षा है। गुरु अपने शिष्य को साधना के गहन सूत्र बता कर उसके मस्तिष्क और संपूर्ण तंत्रिका तंत्र को अध्यात्म प्रवाह के लिए खोल देता है।
लेकिन गुरु और अध्यापक में अंतर है। आजकल किसी को भी गुरु कहना फैशन बन गया है। ‘गु’ का अर्थ है अंधकार और ‘रु’ का अर्थ है दूर करने वाला। यानी जो आपके भीतर के अंधकार को हमेशा के लिए जो दूर कर
दे, वह गुरु है।
मनुष्य के तीन शरीर होते हैं- पहला- स्थूल शरीर, दूसरा- सूक्ष्म शरीर और तीसरा- कारण शरीर। स्थूल शरीर तो हमें दिखाई देता है। यह सोलह तत्वों का बना होता है। पहली नजर में हमारा चेहरा ही हमारे
स्थूल शरीर का परिचय होता है। लेकिन स्थूल शरीर के भीतर एक सूक्ष्म शरीर होता है जो 19 तत्वों का बना होता है। ये 19 तत्व हैं- मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार, पांच ज्ञानेंद्रियां (आंख, कान, नाक,
जीभ और त्वचा), पांच महाभूत ( पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश), तथा पांच प्राण- प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान।
सूक्ष्म शरीर के भीतर हमारा कारण शरीर सूक्ष्मतम है जो 35 तत्वों का बना होता है- स्थूल शरीर के 16 और सूक्ष्म शरीर के 19 मिला कर कुल 35 तत्व। गुरु की दी हुई साधना (दीक्षा) इन सभी स्थूल और
सूक्ष्म तत्वों/ऊर्जाओं को संतुलित बनाता है। हमारे शरीर और मन को स्वस्थ रखता है। गहन से गहनतर साधना से ईश्वर का यथासमय आभास और साक्षात्कार हो पाता है।
दीक्षा को अमृत संचार भी कहते हैं। क्योंकि यह साधना हमारे मन को पवित्रतम और उच्चतर स्तर तक ले जाती है, जहां साधक ईश्वर रूपी अमृत का पान करता है। लेकिन कई साधक दीक्षा लेकर भूल जाते हैं कि
उन्हें कोई साधना भी करनी है। उन्हें याद भी रहता है तो आलस्य के कारण वे दीक्षा के नियमों का पालन नहीं करते। दिन पर दिन बीतते जाते हैं और एक दिन उनका अंतिम समय आ जाता है। तब उन्हें एक मानसिक
झटका लगता है कि साधना तो हुई ही नहीं और मृत्यु का समय आ गया। लेकिन अब पछताने का कोई अर्थ नहीं होता। जो बीत गई सो बात गई।
कई बार हम अपनी गलत आदतों के कारण अपने शरीर की सूक्ष्म नाड़ियों में कचरा भर उनके स्वाभाविक प्रवाह पथ को लगभग जाम कर देते हैं। उसके कारण हमारे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ता
रहता है। हमें उन कष्टों को झेलने की आदत पड़ती जाती है, लेकिन साधना कर इन नाड़ियों को शुद्ध करने का थोड़ा सा परिश्रम हम नहीं कर पाते।
भगवत् गीता में तो भगवान कृष्ण ने कहा ही है कि मनुष्य अपना ही मित्र और शत्रु है। यदि वह साधना करता है, अपना जीवन हर तरह से संतुलित और ईश्वरीय नियमों के अनुकूल बिताता है तो वह अपना मित्र है,
लेकिन यदि वह खान- पान से लेकर आचार-व्यवहार तक में अराजक है तो वह स्वयं अपना ही शत्रु है।
साधना हमें धर्म से अध्यात्म की ओर ले जाती है। अध्यात्म क्या है? आत्मा के रहस्य को जानना। यह जानना कि हम शरीर और मन नहीं हैं, शुद्ध आत्मा हैं। तुलसीदास ने इसीलिए रामचरित मानस में कहा है-
‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी’ (जीव, ईश्वर का अमर अंश है)।
अद्वैत के प्रकांड विद्वान आदि शंकराचार्य ने ‘निर्वाण षटकम’ में लिखा है- ‘मैं शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत, अमर’। तो दीक्षा इसी अनादि अनंत को जानने का दरवाजा है। यह तो आपके ऊपर है कि आप
दरवाजे पर ही खड़े रहते हैं या अनंत की यात्रा पर निकल पड़ते हैं और अनंत का स्रोत जान, समझ और पा लेते हैं। इसीलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने कहा है-किसी गुरु की शरण में जाओ।
अब गुरु खोजना भी कम कठिन काम नहीं है। आजकल असंख्य लोग पैदा हो गए हैं जो स्वयं को गुरु कहने-कहलाने में गर्व महसूस करते हैं। लेकिन कहते हैं न कि जहां चाह, वहां राह। महापुरुषों ने कहा है कि
गुरु कभी मरता नहीं है, चाहे उसका देहावसान भी क्यों न हो जाए।
इस नियम के अनुसार ईश्वर के अवतार भगवान कृष्ण (अर्जुन के गुरु) सदा उपस्थित हैं। वे भी हमारे गुरु हो सकते हैं। उनको गुरु बनाने में किसी बात का डर नहीं है। संत कबीर, परमहंस योगानंद और ऐसे अनेक
शरीर छोड़ चुके संत जीवित और सर्वव्यापी माने जाएंगे। इन दिव्य आत्माओं के ऊपर ध्यान करने से लाभ ही होगा।
एक प्रश्न अक्सर पूछा जाता है- क्या गुरु, दीक्षा देते समय शक्तिपात करते हैं? हां, हमारा शरीर जितनी शक्ति सहन करने योग्य होगा, गुरु उसी अनुपात में शक्तिपात करते हैं। दीक्षा प्राप्त करते समय
सूक्ष्म रूप से हमारे भीतर कई परिवर्तन होते हैं। दीक्षा लेने के साथ ही, हमारी अध्यात्मिक यात्रा का प्रारंभ हो जाता है। साधना में अनेक बाधाएं भी आ सकती हैं, लेकिन सद्गुरु उन बाधाओं को दूर करने
में मदद करते हैं।
कहा भी गया है- ईश्वर की ओर आप एक कदम बढ़ाते हैं तो ईश्वर आपकी ओर दस कदम बढ़ाते हैं। लेकिन साधना के प्रारंभ में यह बात कई लोगों को अविश्वसनीय लगती है। हमारे भीतर मजबूत धैर्य की जरूरत पड़ती है।
आज से साधना शुरू की और कल ही उसका परिणाम पाने की आशा करने लगेंगे तो आपका सारा परिश्रम व्यर्थ हो जाएगा। परिणाम की कोई निश्चित अवधि नहीं होती। यह आपकी एकाग्रता और साधना की गहनता पर निर्भर करता
है। इसमें वर्षों भी लग सकते हैं।
भगवत गीता में इसीलिए भगवान कृष्ण ने कहा है- कर्म करते जाइए, फल की चिंता मत कीजिए। तात्पर्य यह कि फल तो मिलेगा ही, क्योंकि देने वाले स्वयं भगवान हैं। लेकिन कब मिलेगा, इसकी चिंता से मुक्त हो
जाना बहुत जरूरी है। हम ईश्वर को प्रेम करते हैं, यह भाव ही महत्त्वपूर्ण है। प्रेम में पाना नहीं देना होता है। अध्यात्म में देना ही प्राप्त करना हो जाता है।
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