संपादकीयः श्रमिकों की सुध
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जिस दौर में देश का मजदूर तबका सबसे ज्यादा लाचारी और जोखिम का सामना कर रहा है, उसमें उसकी अनदेखी करना एक परिपक्व और न्याय पर आधारित लोकतंत्र की पहचान नहीं हो सकती थी। इस लिहाज से देखें तो
संसद की एक समिति ने देश भर में काम करने वाले प्रवासी श्रमिकों की समस्याओं के मद्देनजर जिन कुछ उपायों पर विचार करने का सुझाव दिया है, वे वक्त की जरूरत हैं। गौरतलब है कि संसद में पेश सामाजिक
सुरक्षा संहिता, 2019 पर श्रम संबंधी स्थायी समिति ने प्रवासी कामगारों के लिए एक कल्याण कोष के निर्माण की सिफारिश की है और इससे संबंधित संहिता में इस कोष का एक अलग श्रेणी के रूप में उल्लेख
करने पर जोर दिया है। इसकी रिपोर्ट में कहा गया है कि समिति यह इच्छा व्यक्त करती है कि अंतरराज्यीय प्रवासी श्रमिकों का एक राष्ट्रीय डाटाबेस बनाया जाए; ऐसा प्रवासी जो अपने पैतृक राज्य में इसके
तहत पंजीकृत नहीं हो सका है, उसे अपने डेटा को शामिल करने की सुविधा होनी चाहिए कि वह एक अंतरराज्यीय प्रवासी श्रमिक है। निश्चित रूप से कल्याणकारी निधियों के दायरे में नहीं आने वाले कर्मचारियों
या कामगारों के हित सुनिश्चित करना सरकार का दायित्व होना चाहिए। मगर सवाल यह है कि अलग-अलग मोर्चों पर देश के निर्माण में अहम भूमिका निभाने वाले कामगारों के कोई भी समूह कल्याणकारी निधियों के
दायरे से बाहर कैसे रहे! इतने व्यापक तंत्र में आमतौर पर छोटी से छोटी गतिविधि भी प्रशासन की नजर में रहती है। लेकिन अब तक ऐसा ठोस तंत्र विकसित नहीं हो सका, जो प्रवासी मजदूरों से संबंधित आंकड़ों
का दस्तावेजीकरण कर सके। वरना क्या वजह है कि संसद में एक सवाल के जवाब में सरकार को यह कहना पड़ा कि पूर्णबंदी की वजह से अलग-अलग शहरों से घर लौटने या रास्ते में ही जान गंवा देने वाले प्रवासी
मजदूरों का कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। जाहिर है, यह सरकार के लिए एक असुविधाजनक स्थिति है। इसलिए समिति के सुझावों के आलोक में अगर प्रवासी मजदूरों का कोई डाटाबेस तैयार होता है तो वह न केवल
कल्याणकारी योजनाओं से लेकर संकटकाल में श्रमिकों के अधिकारों को सुनिश्चित करने, बल्कि उनसे संबंधित आंकड़ों के विश्लेषण में भी मददगार साबित होगा। यह छिपा नहीं है कि कोविड-19 महामारी के मद्देनजर
मार्च में जब अचानक ही पूर्णबंदी लागू कर दी गई थी, तब सबसे बड़ी त्रासदी गरीब मजदूरों के सामने ही खड़ी हो गई। एक ओर फैक्ट्रियों से लेकर निर्माण कार्यों के हर क्षेत्र में अचानक ही काम बंद हो गया
और मजदूरों की रोजी-रोटी छिन गई, वहीं आमदनी के सभी रास्ते बंद हो जाने के बाद उनके लिए किसी दूसरे शहर में रहना और वहां का खर्च उठाना संभव नहीं रहा। इसलिए लाखों मजदूर ट्रेन या बस जैसे कोई साधन
नहीं मिलने के बावजूद पैदल ही हजारों किलोमीटर दूर अपने गांवों की ओर लौट चले। रास्ते में भूख-प्यास से लेकर जिस तरह की तकलीफों का उन्हें सामना करना पड़ा, उसे बयान करना मुश्किल है। रास्ते में
थकान या भूख की वजह से कई मजदूरों की मौत की खबरें आईं। यह एक ऐसे सच की तस्वीर थी, जो नीतिगत स्तर पर दूरदर्शिता के अभाव का नतीजा थी, वहीं ऐसी आपात स्थितियों में संकट से निटपने के लिए किसी
कार्ययोजना और नीतियों के नहीं होने का सबूत भी थी। इसलिए संसदीय समिति की सिफारिशों के मद्देनजर अगर कोई ठोस और मुकम्मल योजना या कार्यक्रम तैयार हो सके जो प्रवासी मजदूरों के हित का ध्यान रख
सके, संकट के समय में हर स्तर पर उनकी मददगार की भूमिका निभा सके तो यह एक बेहद जरूरी पहल होगी।
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