भीड़तंत्र और सवाल
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देश में उन्मादी भीड़ की हिंसा की बढ़ती घटनाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर राज्यों से यह पूछा है कि इसे रोकने के लिए पिछले साल दिए गए निर्देशों पर अमल की क्या स्थिति है। बेकाबू होती भीड़
हिंसा वाकई बहुत गंभीर मसला है, जिस पर शीर्ष अदालत ने राज्यों से जवाब तलब कर पूरे देश की चिंता को ही जाहिर किया है। एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च अदालत ने केंद्र सरकार,
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और ग्यारह राज्यों को नोटिस जारी किए हैं। देश में बढ़ती इस तरह की हिंसा को लेकर शीर्ष अदालत काफी सख्त है और पिछले सवा साल में सरकारों को कसा है। लेकिन इसके बावजूद अभी
तक किसी भी राज्य ने भीड़ की हिंसा को रोकने के लिए कोई कदम उठाया हो या कोई कठोर कानून बनाया हो, ऐसा देखने में नहीं आया। सरकारों का यह हाल तो तब है जब देश की सर्वोच्च अदालत सक्रिय है और
बार-बार नोटिस जारी कर रही है, दिशानिर्देश जारी कर रही है और अपने निर्देशों पर अमल के बारे में पूछ रही है। इससे क्या यह बात प्रमाणित नहीं होती कि सरकारें चाहे राज्यों की हों या केंद्र की,
शीर्ष अदालत की बात को कोई तवज्जो नहीं दे रही हैं?
ऐसा नहीं है कि भीड़ की हिंसा को रोका नहीं जा सकता। लेकिन केंद्र और राज्यों का इस मामले में अब तक का रवैया बहुत ही निराशाजनक रहा है। लगता है, ऐसी घटनाओं को गंभीरता से लिया ही नहीं जा रहा। वरना
क्या यह संभव है कि पुलिस प्रशासन चाहे और ऐसी घटनाएं न रुकें! सवाल तो यह है कि उन्मादियों की हिंसा से बचाव के लिए सरकारों ने कौनसे उल्लेखनीय कदम उठाए जिनसे ऐसे बर्बर कृत्यों को अंजाम देने
वालों के भीतर भय पैदा होता। सर्वोच्च अदालत ने पिछले साल जो निर्देश दिए थे, वे अपने में पर्याप्त हैं और अगर इन पर अमल होता तो निश्चित रूप से भीड़ तंत्र के न्याय पर लगाम लगती। सुप्रीम कोर्ट ने
सभी राज्यों से हर जिले में नोडल अधिकारी नियुक्त करने, खुफिया सूचनाएं जुटाने के लिए विशेष कार्यबल का गठन करने, पुलिस तंत्र को दुरुस्त करने, गश्ती बढ़ाने जैसे कदम उठाने को कहा था। इसके अलावा
भीड़ हिंसा के खिलाफ लोगों को जागरूक बनाने के लिए इलेक्ट्रॉनिक, प्रिंट और सोशल मीडिया के माध्यम से अभियान चलाने को कहा गया था। लेकिन जिस तेजी से इस तरह की घटनाएं बढ़ रही हैं उससे लगता है कि
सरकारों ने ऐसे कोई कदम नहीं उठाए, बल्कि ऐसी घटनाओं को सामान्य अपराध ही मान कर कार्रवाई की जा रही है। शीर्ष अदालत का स्पष्ट निर्देश है कि भीड़ की हिंसा को सामान्य अपराधों से अलग रखा जाए।
सर्वोच्च अदालत ने केंद्र सरकार से भीड़ हिंसा के खिलाफ कानून बनाने को कहा था। लेकिन इस दिशा में अब तक कुछ नहीं हुआ। राज्यों ने तो कोई कानून बनाया ही नहीं, केंद्र ने भी इस दिशा में कोई पहल नहीं
की। केंद्र का रवैया तो डांवाडोल स्थिति वाला रहा है। कुछ दिन पहले केंद्र सरकार ने यह कह दिया था कि भीड़ की हिंसा से निपटने के लिए वह कोई कानून नहीं बनाएगी, क्योंकि राज्यों के पास पर्याप्त
शक्तियां और अधिकार हैं, वही इससे निपटने के उपाय करें और कानून बनाएं। लेकिन बाद में इस तरह की खबरें भी आईं कि भीड़ हिंसा से निपटने के लिए केंद्र जल्द ही ऐसा कानून बनाएगा। जब सर्वोच्च अदालत ने
केंद्र से कानून बनाने को कहा है तो कानून बनना चाहिए। सवाल है जब संवेदनशील मामलों में भी सरकारें सर्वोच्च अदालत के निर्देशों को गंभीरता से नहीं लेंगी तो समस्या से कैसे निजात मिलेगी!
जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस और LG मनोज सिन्हा के बीच तनाव बढ़ रहा है। उपमुख्यमंत्री सुरिंदर चौधरी ने LG पर "प्रॉक्सी सरकार" चलाने का आरोप लगाया और राज्य का दर्जा बहाल करने की मांग की।
उन्होंने कहा कि सरकार लोगों के लिए लड़ने को तैयार है और LG संविधान से खिलवाड़ कर रहे हैं। यह विवाद JKAS अफसरों के तबादलों को लेकर शुरू हुआ था, जिसका उमर अब्दुल्ला ने विरोध किया था।
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